मॉस्को की तारीफ और वॉशिंगटन की दबाव नीति
रूस के विदेश मंत्रालय ने भारत की खुले मंच से तारीफ की है। वजह साफ है—अमेरिकी दबाव के बावजूद नई दिल्ली ने मॉस्को के साथ अपने रिश्तों को न सिर्फ बनाए रखा, बल्कि आगे भी बढ़ाया है। रूसी मंत्रालय ने कहा कि यह लंबे समय से चली आ रही दोस्ती की “परंपरा और आत्मा” को दिखाता है और भारत की विदेश नीति में रणनीतिक स्वायत्तता की झलक है।
यह बयान ऐसे वक्त आया है जब वॉशिंगटन और नई दिल्ली के बीच रूसी तेल को लेकर खिंचाव उभरा। अमेरिकी सर्किलों में यह सवाल बार-बार उठता रहा है कि भारत ने यूक्रेन युद्ध के बाद भी रूस से रियायती तेल खरीद क्यों बढ़ाई। इसी चर्चा के बीच डोनाल्ड ट्रंप ने सार्वजनिक तौर पर कहा कि उन्होंने भारत पर 25-25 प्रतिशत के दो चरणों में, कुल 50 प्रतिशत टैरिफ इसलिए लगाए क्योंकि भारत रूस से तेल खरीद रहा है। उनके शब्दों में, यह आसान फैसला नहीं था और इससे “भारत के साथ दरार” पड़ती है।
मॉस्को की नजर में यह बहस सिर्फ ऊर्जा की नहीं है। रूस ने इसे संप्रभुता और राष्ट्रीय हितों के सम्मान से जोड़ा। उसके मुताबिक भारत के साथ रिश्ते “भरोसेमंद, अनुमानित और सच में रणनीतिक” हैं, और इन्हें रोकने की कोई भी कोशिश नाकाम रहने वाली है। भारत-रूस की हालिया उच्च-स्तरीय बातचीत, नेताओं के बीच फोन कॉल और सार्वजनिक संदेश इसी दिशा की पुष्टि करते हैं।
उधर, वॉशिंगटन में यह तर्क भी जोर पकड़ता रहा कि रूस की युद्ध-समर्थ अर्थव्यवस्था को अलग-थलग करने के वैश्विक प्रयासों में भारत की रूसी तेल निर्भरता बाधा है। अमेरिकी व्यापार व नीति सलाहकारों ने इसे “अवसरवादी” कहा। यह राय भारत में पसंद नहीं की जाती, क्योंकि नई दिल्ली लगातार कहती आई है—ऊर्जा सुरक्षा, कीमतों की स्थिरता और घरेलू ज़रूरतें उसके फैसलों का आधार हैं।
हकीकत यह है कि रूस से सस्ता कच्चा तेल भारत के लिए राहत लेकर आया। वैश्विक बाजार में झटकों के वक्त यह एक बफर बना—पंप की कीमतें लंबे समय तक स्थिर रहीं, रिफाइनरियों की मार्जिन बेहतर रहे और तैयार पेट्रोल-डीजल का निर्यात संभव हुआ। लेकिन यही लाभ अब कूटनीतिक कीमत भी मांगता दिखता है: अमेरिका के साथ बातचीत में भारतीय टीम को लगातार यह समझाना पड़ता है कि यह खरीद किसी ब्लॉक-पॉलिटिक्स का हिस्सा नहीं, बल्कि व्यावहारिक जरूरत है।
 
ऊर्जा, व्यापार और कूटनीति: भारत की संतुलन साधने की रणनीति
आज भारत की कच्चे तेल की टोकरी में रूसी हिस्सेदारी कई महीनों में एक-तिहाई से ऊपर रही है। युद्ध के बाद यूरोप ने रूसी तेल से दूरी बनाई, तो एशिया की खिड़की खुल गई—यही “रि-रूटिंग” भारत के लिए छूट बनी। जहाजरानी, बीमा और भुगतान पर पश्चिमी पाबंदियों के बीच इंडियन रिफाइनरियों ने नई सप्लाई लाइनों और वैकल्पिक ट्रेड रूट्स पर काम किया। कुछ कार्गो “शैडो फ्लीट” के जरिए आए, कई में बीमा और जहाज मालिक बदलते रहे—ताकि कानूनी जोखिम संभाले जा सकें।
भुगतान सबसे मुश्किल रहा। रूबल-रुपया तंत्र कागज पर अच्छा लगा, पर व्यापार असंतुलन—रूस से आयात बहुत ज्यादा और भारत से निर्यात कम—के कारण रुपया रूस में जमा होकर अटकने लगा। उसके बाद बैंकों ने यूएई के जरिए दिरहम-आधारित पेमेंट, और कभी-कभी युआन का रास्ता लिया। मॉस्को ने अपने वैकल्पिक संदेश तंत्र (SPFS) की पेशकश भी की, ताकि SWIFT पर निर्भरता घटे। यह तकनीकी जाल बताता है कि ऊर्जा डील सिर्फ कीमत का खेल नहीं, बल्कि बैंकिंग, बीमा और अनुपालन का लंबा रास्ता है।
इस बीच भारत और रूस, दोनों, व्यापार को तेल से आगे ले जाने की कोशिश कर रहे हैं। द्विपक्षीय व्यापार रिकॉर्ड स्तर पर पहुंचा, पर यह एकतरफा है—भारत का आयात (मुख्यतः कच्चा तेल, उर्वरक, कोयला) बहुत ज्यादा, और निर्यात बहुत कम। दिल्ली की चिंता यह है कि यह असमानता लंबे समय में टिकाऊ नहीं। दवाइयों, कृषि-प्रसंस्करण, ऑटो-पुर्जों और मशीनरी में भारतीय निर्यात बढ़ाने की बात होती रही है।
रक्षा सहयोग भी रिश्ते की धुरी है। S-400 से लेकर AK-203 राइफल उत्पादन और ब्रह्मोस जैसी संयुक्त परियोजनाएं इसका उदाहरण हैं। लेकिन यहीं सबसे बड़ा परीक्षण है—स्पेयर पार्ट्स, सर्विसिंग और फाइनेंसिंग पर पाबंदियों का असर दिखता है। भारत को भविष्य की खरीद में विविधता बढ़ानी पड़ेगी ताकि किसी एक सप्लाई चेन पर अत्यधिक निर्भरता जोखिम न बने।
अमेरिका के साथ भारत का समीकरण अलग धुरी पर चलता है—इंडो-पैसिफिक, उन्नत टेक, सेमीकंडक्टर, स्वच्छ ऊर्जा, और रक्षा सह-उत्पादन। CAATSA जैसे अमेरिकी कानूनों की तलवार कई बार लटकी, पर भारत को अब तक सबसे कड़े प्रहार से बचाया गया। वजह—वॉशिंगटन भारत को क्षेत्रीय संतुलन के लिए अहम साझेदार मानता है। फिर भी, रूसी तेल और भुगतान तंत्र पर सख्ती बढ़ी तो भारतीय कंपनियों के लिए अनुपालन की लागत बढ़ेगी, और जोखिम भी।
नई दिल्ली के नीति गलियारों में बहस दो धाराओं में दिखती है। एक धारा कहती है—ऐतिहासिक भरोसा, रक्षा सहयोग और संकट के समय रूस का साथ, इन कारणों से यह रिश्ता अपरिहार्य है। दूसरी धारा मानती है—रूस की अर्थव्यवस्था और तकनीक पर चीन का प्रभाव बढ़ रहा है; ऐसे में अत्यधिक निकटता भारत के लिए रणनीतिक जोखिम बन सकती है। असल नीति इन दोनों के बीच संतुलन खोजती है: ऊर्जा में अवसर लेते हुए भी रक्षा और हाई-टेक में विविधता, और पश्चिमी साझेदारियों के साथ तालमेल।
ऊर्जा गणित का दूसरा कोण OPEC+ है। रूस इस समूह का बड़ा खिलाड़ी है। उत्पादन कटौती के फैसलों का असर सीधे भारत के इंधन बिल पर पड़ता है। रूस से अधिक आयात का फायदा तभी टिकाऊ है जब छूट बनी रहे और समुद्री लॉजिस्टिक्स सुचारू रहे। अगर पश्चिमी पाबंदियां शिपिंग और बीमा पर और कड़ी हुईं, तो लागत बढ़ेगी और सप्लाई जोखिम बढ़ेगा।
कूटनीति के मोर्चे पर, भारत बहुपक्षीय मंचों—BRICS, SCO, G20—में रूस के साथ बैठता है और वहीं क्वाड व ट्रांस-अटलांटिक साझेदारों के साथ समानांतर संवाद भी चलाता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और व्लादिमीर पुतिन के बीच नियमित संपर्क, “दोस्ती” और “विश्वास” जैसे शब्दों से भरा रहता है। पर शिखर वार्ताओं की असली कसौटी ठोस डिलीवरी है—ऊर्जा, भुगतान, निवेश और रक्षा परियोजनाओं में स्पष्ट रोडमैप।
अमेरिका-भारत व्यापार समीकरण भी इस कहानी का हिस्सा है। टैरिफ, बाजार पहुंच और डिजिटल टैक्स जैसे मुद्दे समय-समय पर मक्खी की तरह परेशान करते हैं, पर बड़े फ्रेम में दोनों की जरूरतें एक-दूसरे से मेल खाती हैं—सप्लाई चेन का चीन-निर्भर मॉडल बदलना, उन्नत विनिर्माण को बढ़ावा देना और सुरक्षा सहयोग गहरा करना। यही कारण है कि एक मोर्चे पर तनाव होने के बावजूद दूसरे मोर्चों पर प्रगति बनी रहती है।
भारत ने सार्वजनिक रूप से अपना सिद्धांत साफ रखा है—रणनीतिक स्वायत्तता। यही वजह है कि पश्चिमी दुनिया की आलोचना के बीच भी भारत ने रूसी तेल लेना जारी रखा और साथ ही अमेरिकी साझेदारियों को भी आगे बढ़ाया। विदेश मंत्रालय की लाइन सरल है: भारतीय उपभोक्ता, उद्योग और कीमत स्थिरता पहले। जब तक कोई खरीद अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन नहीं करती, और भुगतान व बीमा के अनुपालन पूरे होते हैं, भारत अपने हित में फैसले करेगा। यही नजरिया रूस को पसंद आता है और अमेरिका को कभी-कभी असहज करता है।
आगे क्या? कुछ संकेतक साफ हैं:
- पश्चिमी पाबंदियों का अगला चरण—खासकर जहाजरानी, बीमा और मूल्य-सीमा प्रवर्तन—कितना कड़ा होता है।
- रूस-भारत भुगतान तंत्र का समाधान—क्या SPFS/दिरहम मॉडल टिकाऊ बनता है और व्यापार असंतुलन कम होता है।
- रक्षा परियोजनाओं की समयसीमा—स्पेयर और टेक ट्रांसफर पर प्रगति, ताकि देरी न हो।
- अमेरिका में नीति बदलाव—चुनावी वक्तव्य बनाम वास्तविक नीति; भारत के लिए छूट और अपवाद जारी रहते हैं या नहीं।
- कच्चे तेल की वैश्विक कीमतें—अगर 90 डॉलर से ऊपर स्थायी रूप से टिकती हैं, तो छूट के बावजूद रिफाइनरी मार्जिन और घरेलू कीमतों पर दबाव बढ़ेगा।
इन सबके बीच, भारत-रूस संबंध एक परीक्षा से गुजर रहे हैं—जहां इतिहास, अर्थशास्त्र और भू-राजनीति एक-दूसरे में उलझे हैं। मॉस्को की तारीफ, वॉशिंगटन की आपत्तियां और नई दिल्ली की व्यावहारिक लाइन—तीनों मिलकर यही बताते हैं कि अगले कुछ साल संतुलन साधने के होंगे। जो भी पक्ष इस संतुलन को समझेगा और सम्मान देगा, वही इस साझेदारी का असली लाभ ले पाएगा।
 
                     
                                 
                                 
                                 
                                
Ankur Mittal
सितंबर 17, 2025 AT 08:46ये सब बातें तो सच हैं, पर भारत का रूस से तेल खरीदना सिर्फ कीमत का मामला नहीं, बल्कि ऊर्जा सुरक्षा का सवाल है। हमारे लिए 70% तेल आयात पर निर्भरता है, अगर हम रूस से नहीं लेंगे तो कहाँ से लेंगे? ब्राजील? नाइजीरिया? वो भी नहीं बेचेंगे।
ashi kapoor
सितंबर 18, 2025 AT 01:23अरे भाई, ये टैरिफ वाला ड्रामा तो हमेशा की तरह है। अमेरिका जब भी कुछ नहीं बेच पाता, तो भारत पर टैरिफ लगा देता है। वो खुद रूस से तेल खरीदता है, फिर हमें क्यों डांट रहा है? 😒
और हाँ, रूबल-रुपया तंत्र बिल्कुल बेकार है। रूस में रुपया जमा हो गया, अब वहाँ किसी को क्या खरीदना है? भारतीय डिजिटल घड़ियाँ? 😂
Diksha Sharma
सितंबर 18, 2025 AT 07:53ये सब बातें झूठ हैं। अमेरिका ने रूस के साथ तेल का डील खुद बनाया है, और फिर भारत को बदमाश बना रहा है। ये सब एक बड़ा फेक न्यूज़ कैंपेन है। तुम लोग जो भी लिख रहे हो, वो सब वॉशिंगटन के लिए लिख रहे हो। अमेरिका ने भारत के बैंकों को हैक कर लिया है। तुम्हारा फोन भी ट्रैक हो रहा है। 🕵️♀️
shubham gupta
सितंबर 20, 2025 AT 00:58रूबल-रुपया तंत्र का वास्तविक चुनौती यह है कि रूसी बाजार में भारतीय माल की मांग नहीं है। यह एक असंतुलित व्यापार है। भारत को अपने निर्यात को बढ़ाने के लिए रूस के साथ विशेष आयात नीतियाँ बनानी होंगी। दवाएं, ऑटो पुर्जे, और कृषि उत्पाद यहाँ काम कर सकते हैं।
Mansi Arora
सितंबर 21, 2025 AT 14:16अरे भाई, ये टैरिफ वाला ड्रामा तो हमेशा की तरह है। अमेरिका जब भी कुछ नहीं बेच पाता, तो भारत पर टैरिफ लगा देता है। वो खुद रूस से तेल खरीदता है, फिर हमें क्यों डांट रहा है? 😒
और हाँ, रूबल-रुपया तंत्र बिल्कुल बेकार है। रूस में रुपया जमा हो गया, अब वहाँ किसी को क्या खरीदना है? भारतीय डिजिटल घड़ियाँ? 😂
Akshat goyal
सितंबर 21, 2025 AT 23:07सही बात। भारत का कोई विकल्प नहीं।
sneha arora
सितंबर 23, 2025 AT 18:05हम तो बस अपनी जरूरतें पूरी कर रहे हैं। अगर कोई हमें डांट रहा है, तो उसे भी अपनी जरूरतें देखनी चाहिए। ❤️
Tanya Srivastava
सितंबर 25, 2025 AT 12:12अरे यार, ये तो बहुत बोरिंग हो गया। अमेरिका के बारे में बात करो तो आता है, रूस के बारे में तो बिल्कुल नहीं। भारत के लिए रूस एक ज़रूरी दोस्त है, ना कि कोई बड़ा बॉस। और हाँ, अगर ट्रंप ने 50% टैरिफ लगाया तो अच्छा हुआ, अब हम चीन से तेल लेने लगेंगे 😏
और ये सब बातें जो लिखी हैं, वो सब बिल्कुल सही हैं... बस एक बात भूल गए - रूसी तेल के साथ आने वाले बीमा के खर्च भी बढ़ गए हैं। किसी ने इसकी बात नहीं की। और ये शैडो फ्लीट? बस नाम तो सुना है, असली डेटा कहाँ है? 🤷♀️
Amrit Moghariya
सितंबर 26, 2025 AT 05:03भारत के लिए रूस से तेल खरीदना बिल्कुल एक बेकार नहीं है, बल्कि एक बहुत बड़ा स्मार्ट मूव है। अमेरिका को लगता है कि हम उनके बाद चलते हैं, पर हम तो अपने घर की गरमी के लिए लकड़ी खरीद रहे हैं।
और हाँ, अगर वो टैरिफ लगाते हैं तो हम उनके गेमिंग कंप्यूटर खरीदना बंद कर देंगे। अब तो आपके बच्चे भी एसी पर बैठकर गेम नहीं खेल पाएंगे 😎
anand verma
सितंबर 28, 2025 AT 03:58भारत की रणनीतिक स्वायत्तता एक ऐतिहासिक और व्यावहारिक आवश्यकता है। वैश्विक अर्थव्यवस्था में एकल निर्भरता के खतरे को ध्यान में रखते हुए, द्विपक्षीय साझेदारियों का विविधीकरण अत्यंत आवश्यक है। रूस के साथ ऊर्जा सहयोग न केवल आर्थिक रूप से लाभदायक है, बल्कि भू-राजनीतिक स्थिरता के लिए भी एक महत्वपूर्ण तत्व है।
हमें यह समझना चाहिए कि व्यापार और कूटनीति एक दूसरे के साथ अलग-अलग लेकिन समानांतर रूप से कार्य करते हैं। यह संतुलन बनाए रखना ही भारत की वास्तविक शक्ति है।
Amit Mitra
सितंबर 29, 2025 AT 03:17रूसी तेल के साथ भारत की जुड़ाव को लेकर अमेरिका की चिंता समझ में आती है, लेकिन यह भूल जाती है कि भारत के पास वैश्विक ऊर्जा बाजार में कोई वैकल्पिक विकल्प नहीं है।
जब यूरोप रूस से दूर हुआ, तो भारत ने एक अवसर को पकड़ा। यह कोई नीति का चुनाव नहीं, बल्कि अर्थव्यवस्था की वास्तविकता है।
हम रूबल-रुपया तंत्र के बारे में बात कर रहे हैं, लेकिन क्या किसी ने यह जांचा है कि रूसी बैंकों के लिए भारतीय रुपये का उपयोग कितना सुविधाजनक है? नहीं।
हम बात करते हैं व्यापार असंतुलन की, लेकिन रूस में भारतीय दवाओं की मांग क्यों नहीं बढ़ रही? क्योंकि वहाँ के डॉक्टर अभी भी यूरोपीय दवाओं पर भरोसा करते हैं।
हम ब्रह्मोस के बारे में बात करते हैं, लेकिन उसके स्पेयर पार्ट्स की आपूर्ति में कितनी देरी हो रही है? यह कोई रहस्य नहीं है।
और हाँ, ये शैडो फ्लीट वाली बातें - वास्तव में कितने जहाज इस तरह से चल रहे हैं? क्या कोई डेटा है? या सिर्फ अफवाहें?
भारत की नीति बहुत समझदारी से बनाई गई है, लेकिन इसके पीछे के तकनीकी और व्यावहारिक चुनौतियों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
Gajanan Prabhutendolkar
सितंबर 30, 2025 AT 22:27अरे भाई, ये सब बातें तो बहुत आम हैं। भारत ने रूस के साथ तेल खरीदना शुरू किया तो अमेरिका के लोग बोले - ओह नहीं, ये तो हमारे लिए खतरा है।
लेकिन ये सब फेक है। अमेरिका ने रूस के तेल को अपने नाम से बेच रखा है। भारत को बस उसे खरीदने दो।
और ये SPFS? ये तो सिर्फ एक नया नाम है। वास्तव में ये भी SWIFT ही है, बस नाम बदल दिया।
और भारत के निर्यात? तुम लोग बस बातें करते हो। कौन खरीदेगा तुम्हारी दवाएं? रूस में तो अभी भी रूसी दवाएं चलती हैं।
ये सब बस एक बड़ा धोखा है। भारत अमेरिका के आगे झुक रहा है, बस अब रूस के साथ बातें कर रहा है।
और हाँ, ट्रंप ने टैरिफ लगाया? अच्छा हुआ। अब भारत को चीन के साथ जुड़ना होगा। चीन ही असली दोस्त है। 😏
Nathan Roberson
अक्तूबर 2, 2025 AT 22:18रूस से तेल खरीदना तो बिल्कुल ठीक है, पर अगर ये व्यापार असंतुलित रहा तो भारत को खुद अपनी चीजें बेचनी होंगी।
क्या हम रूस को दवाएं, मशीनरी, या ऑटो पुर्जे बेच रहे हैं? नहीं।
अगर हम अपने निर्यात को बढ़ाएंगे, तो रूबल-रुपया तंत्र भी संभव होगा।
वरना ये सब बस एक बड़ा जाल है।
Siddharth Madan
अक्तूबर 3, 2025 AT 12:56हम अपने हित में काम कर रहे हैं। बाकी सब चिंता नहीं करनी चाहिए।
shubham gupta
अक्तूबर 5, 2025 AT 03:12रूबल-रुपया तंत्र के बारे में एक बात भूल गए - रूसी बैंकों में रुपये जमा हो गए हैं, लेकिन उन्हें किसी चीज़ के लिए खर्च करने का कोई तरीका नहीं है। रूसी बाजार में भारतीय उत्पादों की मांग नगण्य है। यह एक असंतुलित व्यापार है।
भारत को अपने निर्यात को बढ़ाने के लिए रूस के साथ विशेष आयात नीतियाँ बनानी होंगी - दवाएं, ऑटो पुर्जे, और कृषि उत्पाद यहाँ काम कर सकते हैं।
इसके बिना, यह तंत्र एक आर्थिक जाल है।
Sagar Solanki
अक्तूबर 5, 2025 AT 08:57ये सब बातें बिल्कुल बेकार हैं। रूस ने भारत को बस एक बड़ा बाजार दिया है, और भारत ने उसे एक ऊर्जा स्रोत बना दिया।
लेकिन असली बात ये है - रूस अब चीन का बहुत बड़ा बेटा बन चुका है। भारत जो भी कर रहा है, वो सिर्फ चीन के लिए एक निकास बन रहा है।
और हाँ, ये ब्रह्मोस और S-400? ये सब भी चीन के लिए बनाए गए हैं।
अमेरिका को लगता है कि भारत अपना रास्ता चल रहा है, पर असल में भारत चीन के नीचे चल रहा है।
ये तो एक बड़ा धोखा है।